ज़िन्दगी एक किताब सी है,जिसमें ढेरों किस्से-कहानियां हैं ............. इस किताब के कुछ पन्ने आंसुओं से भीगे हैं तो कुछ में,ख़ुशी मुस्कुराती है. ............प्यार है,गुस्सा है ,रूठना-मनाना है ,सुख-दुःख हैं,ख्वाब हैं,हकीकत भी है ...............हम सबके जीवन की किताब के पन्नों पर लिखी कुछ अनछुई इबारतों को पढने और अनकहे पहलुओं को समझने की एक कोशिश है ...............ज़िन्दगीनामा
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आपकी इस बेहद संवेदनशील कविता पर अपने दो शेर याद आ गए ...
ReplyDelete....
उससे कह दो कि अब चुप भी रहे
ये खामोशी बहुत शोर करती है
………………
इससे बेहतर कि कुछ कह देता
चुप रह कर जो वह सुनाता रहा
अमित.........आपके इन दो खूबसूरत शेरों के आगे मैं क्या लिखूं??ये चुप रह कर जब कोई सुनाता है तो झेलना बेहद मुश्किल हो जाता है ,न?
ReplyDelete@ निधि ........तुम्हारी कवितायें मेरे लिये बड़ी परेशानी का सबब होतीं हैं.....क्योंकि वो मुझे दिल के उन गोशों में ले जातीं हैं जहां जाना मेरे लिये बड़ी तकलीफ़ का बाईस होता है !!!......वो ख़यालात....वो कैफ़ियत.....वो सोच जिनका सामना मैं करना नहीं चाहती ...वो जाने कहाँ से खुद- ब- खुद मेरे सामने आ कर खड़े हो जाते हैं ......मानो मुहं चिढ़ा कर कह रहे हों .... " लो अब कहाँ तक भागोगी हमसे ? ".....सच कहा है तुमने ....
ReplyDelete" तुम्हारी चुप्पी ...जैसे दिल की धड़कन रुक सी गयी हो !
तुम्हारी बेरुखी ....जैसे सूरज को ग्रहण लग गया हो !......"
हाँ यूँ ही लगता है....जब बहुत सी खामोशियाँ हो जातीं हैं यक्जां......एक ग़ज़ल याद आ रही है.....
" फिर से वही मंज़र पसे - मंज़र से निकालो ;
डूबे हुए सूरज को समंदर से निकालो !
अब चाहे मोहब्बत का वो ज़ज्बा हो कि नफरत ;
जो दिल में छुपा है उसे अन्दर से निकालो !
मैं कब से सदा बनके यहाँ गूँज रहा हूँ ;
अब तो मुझे इस गुम्बदे - बेदर से निकालो !
वो दर्द भरी चीख मैं भूला नहीं अब तक ;
कहता था कोई बुत मुझे पत्थर से निकालो !
ये शख्स हमें चैन से रहने नहीं देगा ;
तन्हाईयाँ कहतीं हैं इसे घर से निकालो !!! "
खूबसूरत गज़ल पढवाने के लिए,शुक्रिया!
Deleteआपकी हर अदा निराली है..
ReplyDeleteबहुत खूब..
पसंद करने और सराहने के लिए.....थैंक्स!
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